किसी संस्कृति के रसोईघर को नष्ट करने से वह संस्कृति भी निश्चित ही नष्ट हो जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि रसोईघर में ही आंख, नाक, कान, जीभ और यहां तक की त्वचा, अर्थात पांचों इंद्रियों को समझ आने वाली भाषा का प्रयोग होता है। और हालांकि हममें से बहुत कम लोग इस बात को पहचानते हैं, हम सब इस भाषा से बचपन से अवगत हो जाते हैं। चीनी भोजन को चीनी तरीक़े से बनाकर चीनी मां अपने बच्चे को चीनी बनाती है। भारतीय भोजन को भारतीय तरीक़े से बनाकर भारतीय मां अपने बच्चे को भारतीय बनाती है। कोई भी बच्चा संस्कृति की समझ लेकर जन्म नहीं लेता। समय के साथ वह अपने इर्द-गिर्द के लोगों के विचार आत्मसात करता है और उसका मन आकार लेता है। लेकिन ज़रूरी नहीं है कि ये विचार वाणी के माध्यम से ही बच्चे तक संचारित हों। बाल मन तक आदेश नहीं, बल्कि प्रतिरूप पहुंचते हैं। और प्रतिरूपों ने हमेशा प्रतीकों, कहानियों और अनुष्ठानों का रूप लिया है। रसोईघर में ऐसे कई प्रतीक हैं और अनुष्ठान किए जाते हैं जो बाल मन को प्रभावित करते हैं। इन प्रतीकों और अनुष्ठानों को बदलकर बच्चों के विचार और उसके साथ संपूर्ण समाज की संस्कृति भी बदली जा सकती है। क्या ये आश्चर्य की बात नहीं कि अभी तक बाल मनोवैज्ञानिकों ने इस बात को समझा नहीं है? शायद, आधुनिक मन के लिए यह विचार संभाव्य नहीं है कि मामूली रसोईघर के भीतर भी हम सीख सकते हैं। परंपरागत भारतीय रसोईघर पवित्र होता है। उसे शुभ प्रतीकों से सजाया जाता है। कभी-कभार पूजा घर भी उसके भीतर ही होता है। कई घरों में जूते पहनकर रसोईघर में जाना, नहाए बिना खाना पकाना और नहाए बिना भोजन करना तक मना है। इन सबसे बच्चे को एक स्पष्ट संदेश मिलता है- भोजन से न केवल पेट भरता है, बल्कि वह विशेष और पवित्र है। भोजन वो है जो हम जीवन के यज्ञ से प्राप्त करते हैं। लेकिन आधुनिक काल में रसोईघर का स्वभाव बदल रहा है। अब उद्देश्य रसोईघर को सबसे अधिक कुशल और स्वच्छ बनाना है ताकि काम पर जाने वाले दंपती के लिए सुविधाजनक हो। अब रसोईघरों में फ़्रिज, डिशवॉशर, प्रेशर कुकर, काटने, घिसने और कूटने के यंत्र और माइक्रोवेव साधारणतः पाए जाते हैं। और इन यंत्रों के कारण लोग पहले की तुलना में रसोईघर में कम समय बिता रहे हैं। अब सारा खाना और खाद्य पदार्थ या तो एल्युमीनियम फ़ॉइल या प्लास्टिक में लिपटे जाते हैं। एग्ज़ॉस्ट फ़ैन के कारण दुर्गंध और भाप भी झट से चले जाते हैं। इन सबकी वजह से रसोईघर कारखाने जैसे प्रतीत होते हैं। इन सबसे क्या संदेश दिया जा रहा है? कि खाना बनाना एक पवित्र क्रिया नहीं, बल्कि केवल एक और औद्योगिक क्रिया बन गई है? रसोईघर मंदिर से कारखाने में कैसे बदल गया? क्या धर्मनिरपेक्षता वजह है, जो भोजन को वैज्ञानिक तरीक़े से देखती है और भोजन के पूजनीय होने को अंधविश्वास कहकर नकारती है? क्या नारीवाद वजह है, जिसका पाश्चात्य रूप मानता है कि रसोईघर पुरुषों द्वारा महिलाओं के लिए बनाई गई जेल है? रसोईघर में ही भारतीय बच्चा ‘जूठे’ खाने के बारे में सीखता है; कैसे पहले से चखा गया भोजन ख़राब होता है। वह सीखता है कि पकाते समय भोजन को कभी नहीं चखा जाता और चखा हुआ खाना देवताओं को कभी अर्पित नहीं किया जाता। भारतीय रसोईघर में बच्चे अंदाज़ का महत्व सीखते हैं। घर की महिला या खाना बनाने वाला अन्य कोई भी व्यक्ति नमक हमेशा अंदाज़ से या स्वादानुसार ही डालता है। नुस्खे भी कभी लिखे नहीं जाते हैं, बल्कि खाना पकाते-पकाते सीखे जाते हैं। खाने में डलने वाली अन्य सामग्रियां भी कितनी मात्रा में लेनी हैं, वो भी अंदाज़ से, उन्हें देखकर, न कि उन्हें चखकर निर्धारित की जाती हैं। इसलिए खाना पकाना बहुत ही रचनात्मक क्रिया है, क्योंकि हमें हमारी जीभ के अलावा अन्य इंद्रियों का उपयोग करना पड़ता है। चूंकि नुस्खे नहीं होते हैं तो इससे बच्चों को संदेश मिलता है कि जीवन में कुछ भी एकदम तय नहीं है। हमारी परिस्थिति के अनुसार रचनात्मकता से ही जीवन जीना पड़ता है। इसका ये मतलब भी है कि ज्ञान दस्तावेज़ों में नहीं, बल्कि लोगों में पाया जाता है। रसोई के बाहर व्यंजन का कोई अस्तित्व नहीं है। और इसलिए, मां के जाने के साथ उसके हाथ की दाल का स्वाद भी चला जाता है। अगले हफ़्ते भी हम रसोईघर के बारे में बातचीत जारी रखेंगे।
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