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250 सालों से होलकर के लिए बना रहे गणेश प्रतिमाएं:पढ़िए खरगोणकर परिवार की पांचवीं पीढ़ी की कहानी, जो तीन माह में तैयार करते हैं गणेश प्रतिमा

इंदौर शहर में गणेशोत्सव की तैयारियां जोरों पर है। बारिश के बावजूद पंडाल लगाने वालों के उत्साह में कोई कमी नहीं है। गणेश प्रतिमाओं ने अंतिम रूप ले लिया है। अब बप्पा पंडाल में बिराजमान होने के लिए तैयार हैं।

होलकर राजवंश द्वारा स्थापित की जानें वाली गणेश प्रतिमा और इसे तैयार करने वाले कलाकार के बारे में।
लगभग 250 साल से होलकर राजवंश के लिए प्रतिमा बनाने वाले पांचवी पीढ़ी के मूर्तिकार श्याम खरगोणकर कहते हैं कि हम प्रतिमा बनाने का काम वसंत पंचमी से शुरू कर देते हैं। इसके लिए हमें किसी ऑर्डर का इंतजार नहीं करना होता है। हमारे द्वारा तैयार की जाने वाली प्रतिमाओं की खासियत इको फ्रेंडली होना है। हमारे द्वारा प्रतिमा के निर्माण के लिए खास पीली मिट्टी का उपयोग किया जाता है। यह प्रतिमा पूर्ण रूप से हाथ से ही बनाई जाती है किसी प्रकार के सांचे का उपयोग नहीं होता है

श्याम खरगोणकर बताते हैं कि परिवार को गणेश प्रतिमा बनाने की परंपरा विरासत में मिली है लगभग ढाई सौ साल पुरानी परंपरा आज भी हमने कायम रखी है। राजवाड़ा के दरबार हॉल में विराजे जाने वाली गणेश प्रतिमा का निर्माण हमारे पूर्वजों के समय से हमारा परिवार कर रहा है, जो आज भी कायम है।

भारत में शायद ही यह परंपरा कहीं और देखने को मिलेगी। अब हमारी सातवीं पीढ़ी भी इस काम में जुट चुकी है। मैं पांचवी पीढ़ी का सदस्य हूं। चूंकि यह परंपरा हमें विरासत में मिली है इसलिए हम गणेश प्रतिमा का निर्माण प्रोफेशनल नहीं ट्रेडीशनल तरीके से करते हैं गणेश प्रतिमा बनाने वाली सभी पीढ़ी अपने काम धंधे के बाद गणेश उत्सव के समय पर इस काम पर जुट जाती है।

दैनिक भास्कर में सबसे पहले देखिए होलकर राजवंश द्वारा तैयार कराई गई गणेश प्रतिमा। इसे श्याम खरगोणकर ने तीन माह में तैयार किया है। गणेश चतुर्थी पर इसे राजवाड़ा में स्थापित किया जाएगा। इसके बाद यहीं बनी बावड़ी में विसर्जन किया जाएगा। ये परंपरा बीते ढाई सौ सालों से चली आ रही है।
होलकर राजवंश द्वारा तैयार कराई गई गणेश प्रतिमा। इसे श्याम खरगोणकर ने तीन माह में तैयार किया है। गणेश चतुर्थी पर इसे राजवाड़ा में स्थापित किया जाएगा। इसके बाद यहीं बनी बावड़ी में विसर्जन किया जाएगा। ये परंपरा बीते ढाई सौ सालों से चली आ रही है।

हमारे पूर्वज भी यही किया करते थे। सातवीं पीढ़ी के तौर पर मेरी पोती अवनी खरगोणकर भी अपने प्रोफेशनल काम के बाद इस ट्रैडीशनल काम को समय देती है। श्याम बताते हैं कि मैं स्वयं रोज 5 से 6 घंटे प्रतिमा बनाने के लिए समय देता हूं।

खरगोणकर बताते हैं कि हम राजवंश की प्रतिमा के साथ बड़े रावले जमीदारों के लिए भी मूर्ति बनाते हैं। इनकी प्रतिमाएं भी हम उसी वक्त से तैयार कर रहे हैं। प्रतिमा को एक-एक दिन छोड़कर तैयार किया जाता है ताकि जो आकार बनाया जा रहा है वो अच्छे से सेट हो सके और मिट्टी भी सूख जाए।

श्याम बताते हैं कि इसकी शुरुआत अहिल्या माता से समय हो गई थी। सन 1800 के आसपास जब राजवाड़ा में गणेश उत्सव मनाने की तैयारी शुरू हुई और गणेश प्रतिमा तैयार करने की बात आई तब मौजूद राजा ने राजवाड़ा में मौजूद राजवंशी कलाकारों से प्रतिमा बनाने का आग्रह किया। उसे दौरान हमारे पूर्वज मोरोपंत खरगोणकर राजवाड़ा के प्रसिद्ध मूर्तिकार माने जाते थे। तभी से यह परंपरा हमारे परिवार में शामिल हो गई। और तब से लेकर हमारा परिवार राजवंश के लिए गणेश प्रतिमा तैयार कर रहा है।

होलकर साम्राज्य के आखिरी राजा यशवंत राव होलकर के वंशज गणेश उत्सव के दौरान यहां आते हैं उनके बेटे रिचर्डसन महेश्वर और बेटी उषा राजे मुंबई में रहती हैं। वे अक्सर राजवाड़ा में होने वाले उत्सव में शामिल होने आया करते हैं।

श्याम खरगोणकर बताते है कि मेरे पूर्वजों मोरोपंत खरगोणकर के बाद अमृतलाल खरगोणकर, सखाराम पथ खरगोणकर, गोविंद खरगोणकर और अब मैं पांचवी पीढ़ी के तौर पर काम कर रहा हूं। मेरा बेटा अमित और पोती अवनी पीढ़ी दर पीढ़ी गणेश प्रतिमा निर्माण की परम्परा आगे बढ़ा रहे हैं।

श्याम बताते हैं कि गणेश प्रतिमा बनाने के लिए हमारे पूर्वज के समय पारंपरिक शुल्क के तौर पर मुद्राएं दी जाती थी वर्तमान में अहिल्या ट्रस्ट द्वारा हमें शगुन के तौर पर प्रतिमा बनाने की उपलक्ष में 5 से 6 हजार रुपए तक की राशि दी जाती है। बता दें कि वर्तमान में राजवाड़ा में होने वाले सभी कार्यक्रम और देखभाल इसी ट्रस्ट द्वारा की जाती है।

पीली मिट्‌टी में व्हाइट चॉक, कपास मिलाकर तैयार होती है मिट्‌टी

प्रतिमाओं के निर्माण में उपयोग किए जाने वाली पीली मिट्टी खदान और कुम्हार से खरीद कर उपयोग लायक तैयार की जाती है। मिट्टी को सबसे पहले लिक्विड फॉर्म में तैयार करके सूती कपड़े से छाना जाता है। ताकि मिट्टी में मौजूद छोटे कंकड़ उससे बाहर हो सके। इसके अलावा पीली मिट्टी में व्हाइट चॉक भी मिलाया जाता है।

साथ ही मिट्टी में पकड़ को मजबूत बनाने के लिए कपास मिलाकर मिट्टी को रेशेदार रूप में तैयार किया जाता है। इससे बनने वाली प्रतिमा को आसानी से आकर देने के साथ ही बनने के बाद प्रतिमाओं में दरार नहीं आती है। और फीनिशिंग भी ज्यादा बेहतर होती है।

राजवंश से तीन महीने पहले मिल जाता है पाट, यही हमारे लिए ऑर्डर

हर साल राजवाड़ा से राजवंश के पुरोहित गणेश प्रतिमा को बनाने के लिए तीन महीने पहले वसंत पंचमी पर लकड़ी के पाट हमारे घर पहुंचा जाते हैं। यह पाट लगभग तीन गुणा दो फीट आकार के होते हैं। इसी पाट पर गणेश प्रतिमा का निर्माण किया जाता है। हम प्रतिमा को तैयार कर करने के बाद पास के मंदिर में रख देते हैं। तय समय पर राजवंश के वंशज और पुरोहित पूरी तैयारी के साध धूमधाम से पालकी में बैठा कर ले जाते हैं।

इस दौरान होलकर स्टेट बैंड से विशेष धुनें भी बजाई जाती हैं। श्याम बताते हैं कि राजवाड़ा के लिए बनने वाली प्रतिमा की डिजाइन हम कभी चेंज नहीं करते हैं। राजवाड़ा के लिए जो डिजाइन हमारे पूर्वजों ने बनाया है, वही डिजाइन आज भी हम मेंटेन कर रहे हैं। प्रतिमा को देखकर अहसास होता है कि है यह राजवाड़ा के लिए बनाई गणेश प्रतिमा है।

हमारे पूर्वजों ने भी जब से गणेश प्रतिमा बनाना शुरू किया तब उसका कोई मेजरमेंट या साइज नहीं तय किया गया था और आज भी हम अंदाज़ से ही प्रतिमा तैयार करते हैं। इसका कोई पैटर्न डिजाइन या लिखा हुआ मेज़रमेंट हमारे पास नहीं है। हम प्रतिमा बनाने से पहले विधि विधान से पूजा पाठ करते हैं। इसके बाद प्रतिमा बनाना शुरू कर देते हैं।

राजवाड़ा की शान दिखाती है यहां तैयार होने वाली प्रतिमा

जब अहिल्या माता होलकर के जमाने से राजवाड़ा में गणेश उत्सव की शुरुआत हुई तब राजवाड़ा में हमारे हाथ के गणेश जी स्थापित करने का निर्णय हुआ। तब राजमाता ने हमारे पूर्वज से राजवाड़ा के लिए विशेष आकार की मूर्ति तैयार करने का निर्देश भी दिया। ताकि देखने से राजवाड़ा जैसा भाव निकल कर सामने आए।

तभी से हमारे पूर्वजों ने प्रतिमा को राजवाड़ा लुक में तैयार करना शुरू किया। इसके लिए खासकर गणेश जी को होलकर पगड़ी पहनाई गई। गणेश जी का सूंड भी घुमावदार होकर उनके पेट पर रखा होता है। खास बात यह है कि यह डिजाइन हमारे अलावा भारतवर्ष में कोई और तैयार नहीं करता है।

बसंत पंचमी पर सबसे पहले तीन छोटी प्रतिमा फिर मुख्य प्रतिमा बनाते हैं

गणेश प्रतिमा की शुरुआत करने से पहले बसंत पंचमी के शुभ मुहूर्त में विधि विधान से पूजा पाठ करने के बाद तीन छोटी प्रतिमा बनाते हैं। इनके बाद ही मुख्य प्रतिमा बनाना शुरू करते हैं। पूजा पाठ कर बनाई गई तीनों छोटी प्रतिमाओं को मुख्य प्रतिमा के पेट के अंदर रखा जाता है। मान्यता है कि उन तीनों छोटी प्रतिमाओं को मुख्य प्रतिमा के पेट में रखने से मुख्य प्रतिमा का निर्माण भी बसंत पंचमी के दिन से माना जाता है। पूजा पाठ कर बनाई गई तीनो प्रतिमाओं को सिद्ध मूर्तियां मानते हैं। जब मुख्य प्रतिमा बनकर तैयार हो जाती है तब दर्शन करने वाले लोगों को एक अलग तेज की अनुभूति होती है।

राजवाड़ा के दरबार हॉल में रखी जाने वाली प्रतिमाओं का विसर्जन गणेश उत्सव के पहले खान नदी के घनघोर घाट पर किया जाता था। लेकिन अब नदी स्वच्छ नहीं होने के कारण राजवाड़ा की बावड़ियों में ही विसर्जन किया जाता है।

शहर में बनने वाली मूर्तियां न केवल शहर के पंडालों में विराजित की जाती है। बल्कि उज्जैन, धार, देवास, खरगोन, बुरहानपुर के अलावा राजस्थान और गुजरात के भी ऑर्डर आते हैं। दो साल पहले कोरोना के कारण मूर्तिकारों को काफी नुकसान झेलना पड़ा था। लेकिन इस साल तीन महीने पहले से ही शहर के मूर्तिकारों को प्रतिमाओं के ऑर्डर मिलने लगे थे।

इस साल प्रतिमाएं पिछले वर्ष की तुलना में ज्यादा बनी है। वहीं इन मिट्टी की प्रतिमाओं के निर्माण के लिए बंगाल से आने वाले मूर्तिकार भी दोगुने हो गए हैं। वहीं शहर में इस साल लगभग 1 लाख से ज्यादा मूर्तियां बनाई गई हैं। पिछले साल करीब 80 हजार मूर्तियां बनाई गई थी।

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