पीले सोने पर ‘कटा’ का कहर, सरसों की दोबारा बोवनी की नौबत, ग्वालियर-चंबल में बड़े किसान नहीं, इसलिए आर्थिक मार भी ज्यादा...
रबी सीजन में सरसों के गढ़ ग्वालियर-चंबल से लेकर मध्य क्षेत्र, निमाड़, महाकोशल के आंशिक रकबे वाले जिलों तक कहर बनकर टूटे कीड़ों ‘कटा’ ने अन्नदाता की कमर तोड़ दी है। हालात इतने गंभीर हैं कि कई एकड़ में पहली बुवाई की सरसों फसल नष्ट हो चुकी। ऐसे में किसानों को दूसरी बार बोवनी के लिए बीज, जुताई और पलेवा की व्यवस्था करनी पड़ रही है। सरसों की बुवाई लेट हो चली है तो रही-सही कसर खाद की किल्लत ने पूरी कर दी है।
कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि मिट्टी में नमी कम है। बुवाई के साथ सिंचाई पर ध्यान न दिया जाए तो इस तरह के कीट पत्तियां खाकर पौधे को नष्ट कर देते हैं। ग्वालियर-चंबल में मालवा, महाकोशल और मध्य क्षेत्र की तरह बड़े-बड़े रकबे वाले किसान नहीं हैं। यहां औसतन किसानों के पास 5 से 25 बीघा से ज्यादा भूमि नहीं है। किसानों को पहली सरसों की फसल नष्ट होने और दोबारा बुवाई करने के कारण बड़ा आर्थिक बोझ उठाना पड़ा है।
ये हैं सरसों की खेती वाले जिले
मध्यप्रदेश में कभी ग्वालियर संभाग के ग्वालियर, दतिया, शिवपुरी, गुना, अशोकनगर तो चंबल के श्योपुर, मुरैना और भिण्ड तक सरसों की खेती का साम्राज्य माना जाता था। पिछले दो दशकों के दरमियान सरसों की खेती का रकबा दूसरे जिलों तक फैल गया है। नर्मदापुरम संभाग के नर्मदपुरम, हरदा, महाकोशल के नरसिंहपुर, बीना तो निमाड़ के खण्डवा में इसकी खेती होने लगी है।
ग्वालियर जिले में मुरार और घांटीगांव मुख्य रूप से सरसों का क्षेत्र है, वहां भिण्ड जैसे ही हालात हैं। इस क्षेत्र के डबरा, भितरवार और घाटीगांव में धान होती है, जिसकी देर से कटाई होने से अब गेहूं की बुवाई वहां होगी। इसके लिए डीएपी, एनपीके और यूरिया भी नहीं मिल रही है। श्योपुर जिले में नहर से पानी मिल गया था तो उसके कारण सरसों की फसल कटा के प्रकोप से बच गई। शिवपुरी और दतिया जिले में रबी के सीजन में गेहूं और गन्ने की फसल ली जाती है, इसलिए वे इलाके भी कीट के प्रकोप से बच गए।
भिण्ड में बारिश होने के कारण जल्दी बुवाई कर दी थी, इसका नुकसान ये हुआ कि पूरे बेल्ट में कीड़े (कटा) ने सरसों बर्बाद कर दी। अब दोबारा पलेवा करके बुवाई करनी पड़ रही है। मुरैना के अंतर्गत आने वाले सबलगढ़, जौरा, कैलारस, अम्बाह, पोरसा में कीड़े लगे थे, इनमें से जिन किसानों ने पलेवा करके पानी दे दिया, जिससे कुछ हद तक फसल बच गई। वहीं मुरैना के कुछ हिस्सों में बारिश हो गई तो भी राहत रही। चंबल की नहर के किनारे के सिकरवारी पट्टी वाले ग्रामीण क्षेत्रों में नहर का पानी लेट हो जाने से अभी तक बुवाई नहीं हो पाई है।
1 एकड़ में सरसों का डेढ़ किग्रा बीज लगता है, जिसकी कीमत 1000 से 1200 रुपए है। इस हिसाब से 25 एकड़ के लिए औसतन 50 हजार रुपए के बीज का नुकसान हुआ। फिर हर किसान के पास ट्रैक्टर नहीं है। किराए पर लिए गए ट्रैक्टर के लिए 300 रुपए प्रति बीघा की दर (एक एकड़ में 600 रुपए) बैठते हैं। इस तरह कुल 7 हजार 200 रुपए जुताई में लगते हैं। डीएपी हर दो बीघा पर एक कट्टा 50 किलो का डलता है, जिसकी सरकारी कीमत 1350 रुपए है। चूंकि अभी सरकारी में आपूर्ति न के बराबर है, अत: प्राइवेट में इसे 1500 रुपए तक पर खरीदना पड़ रहा है। 10 कट्टे भी अगर 25 बीघा में लगे तो 13 हजार 500 रुपए हुए, हालांकि राहत की बात ये कि एक बार छिड़काव के बाद दूसरी बार की बुवाई में इसको नहीं डालेंगे तो काम चल जाएगा।
0 टिप्पणियाँ