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परिवार भी आपका ही परिवार है:ख़ुद को अपनों से जोड़ने के साथ-साथ बच्चों को भी रिश्तेदारों से रिश्ता निभाने के लिए प्रेरित करें

  • परिवार का ख़याल आते ही एक इत्मीनान और सुरक्षा का भाव आए, तो ज़िंदगी की आसानियों का अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता।

आज परिवार का मतलब है तो माता-पिता और बच्चा या दो बच्चे। परंतु वृहद परिवार में चाचा-चाची, मामा-मामी और उनके बच्चे भी आपका ही परिवार हैं। उनसे शायद आप कई सालों से नहीं मिले होंगे और ख़ास अवसरों पर ही फोन पर बात होती होगी। मिलना कम हो, तो बात भी घट जाती है और जिनको देखे सालों बीत जाएं, उनसे रिश्ते औपचारिक होते चले जाते हैं। बरसों बाद कभी मिलें भी, तो संवाद के सिरे पकड़ में ही नहीं आते, अपनापन तो दूर की बात। ऐसे में निबाह का इत्मीनान कहां से आएगा। सारा मुद्दा परिवार से मिलते रहने और एक-दूसरे से जुड़े रहने का है। अब तो बहुत से परिवारों में एक ही बच्चा है। अकेला होने के कारण वह रिश्ते समझता ही नहीं। इसके कई मानसिक, सामाजिक और व्यक्तित्व संबंधी दुष्परिणाम नज़र आने लगे हैं। तब और भी ज़रूरी हो जाता है कि वह अपने ममेरे, चचेरे, रिश्तों से जुड़ाव और आत्मीयता महसूस करे।

... लेकिन रिश्तों में दूरियां क्यों हैं?

ज़्यादातर माता-पिता ख़ुद ही अपने काम और व्यस्त जि़ंदगी में इतने उलझे रहते हैं कि वे अपने रिश्तेदारों से मिलने का वक़्त नहीं निकाल पाते। अगर रिश्तेदार अपने शहर व घर बुलाते हैं और बच्चे जाने के लिए मान भी जाते हैं तो बड़े व्यस्तता का हवाला लेकर जाने से मना कर देते हैं। कई बार बड़ों के बीच का मनमुटाव दूरी का कारण बन जाता है।

यह भी देखा गया है कि बच्चों की पढ़ाई को लेकर अभिभावक उन्हें परिवार से दूर कर देते हैं। अगर रिश्तेदारों के यहां जाना है तो बच्चे को पढ़ाई या परीक्षा का हवाला देकर यह कह देते हैं कि तुम रहने दो, हम चले जाएंगे। घर पर चाचा या मामा का परिवार आया है तो अभिभावक परिचय कराकर बच्चे को दूसरे कमरे में पढ़ने के लिए भेज देते हैं।

बच्चों का परिवार अलग बन गया है

बच्चे या किशोर अपने दोस्तों के साथ अधिक समय बिताते हैं इसलिए उनके लिए वही सगे बन जाते हैं। सारी समस्या उनसे कहते हैं। उन्हें महसूस ही नहीं होता कि किसी और शहर या राज्य में उनके भाई-बहन भी हैं जो उनका परिवार है। कुछ किशोरों को यह भी लगता है कि उनके रिश्तेदार हमउम्र लोग ही उनको समझ पाते हैं, और परिवार के सभी बड़े-बूढ़े उनसे बहुत अलग हैं।

कई बार माता-पिता अपने बच्चों को यह भी नहीं बताते कि उनके किन शहरों में कौन-कौन रिश्तेदार हैं या उनसे क्या रिश्ता है। ऐसे में बच्चे बड़े होकर भी अपने रिश्तेदारों से दूर ही रहते हैं। जिनसे रक्तसंबंध है या पारिवारिक रिश्ते हैं, उनके साथ होने से जो सुरक्षा व अपनापन मिलता है, वो कहीं और संभव नहीं है।

कोशिश करें फिर एक होने की

परिवार ही हमें मज़बूती और सहारा देता है। ख़ुद को अपनों से जोड़ने के साथ-साथ बच्चों को भी रिश्तेदारों से रिश्ता निभाने के लिए प्रेरित करें।

मिलते-जुलते रहें... साल में कम से कम एक बार पूरा परिवार मिलने की योजना बना सकता है। इसमें दादा-दादी और नाना-नानी के साथ-साथ चाचा-चाची, मामा-मामी, बुआ-फूफा, मौसा-मासी और उनका परिवार, सब होने चाहिए।

घूमने जाएं... छुट्टियों में घूमने जा सकते हैं। जगह का चुनाव ऐसा होना चाहिए जिसका ख़र्च सबके बजट में रहे और सबकी रज़ामंदी हो। इस योजना की ज़िम्मेदारी घर के बड़े बच्चों को दी जा सकती है जिससे वे एक-दूसरे के संपर्क में रहेंगे।

अगर-मगर की जगह नहीं... इसे नियम की तरह लागू करें। हर परिवार को नियत कार्यक्रम में आना ही होगा। जब भाई-बहन अक्सर मिलते रहते हैं, तो एक-दूसरे को ही नहीं, परिवार के मूल्यों को भी समझते हैं। उनमें स्वीकार्यता का भाव आता है। ‘मेरे लिए भाई है, बहन है’ इसका अहसास सुरक्षा देता है। भावनात्मक आधार मज़बूत हो, तो हालात का कोई भी तूफान परिवार का कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

कुछ शर्तें भी हैं...

  • जब बच्चे लंबे वक़्त के बाद परिवार से मिल रहे हों तो बड़े उनकी पढ़ाई या नौकरी को लेकर सवाल ना करें। रंग-रूप पर भी मज़ाक ना करें।
  • बड़े पहले ही नियम तय कर दें कि बच्चे जब आपस में मिलेंगे तो मोबाइल या लैपटॉप दूर रखेंगे।
  • पुरानी बातों या मुद्दों को लेकर बातचीत करने या ग़लती निकालने से बचें।
  • बच्चों के छोटे-मोटे झगड़ों में बड़े नहीं उलझेंगे और ना इनसे मनमुटाव होने देंगे। अपने बच्चों का पक्ष लेने के बजाय उन्हें एक-दूसरे से सुलह करने के लिए कहें।

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