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नव-कलेवर’ प्रक्रिया में होता है भगवान का पुनर्जन्म

पुरी में प्रत्येक 14 से 19 वर्ष में एक बार ‘नव-कलेवर’ की प्रक्रिया दोहराई जाती है। - Dainik Bhaskar

पुरी में प्रत्येक 14 से 19 वर्ष में एक बार ‘नव-कलेवर’ की प्रक्रिया दोहराई जाती है।

क्या आपको पता है कि ओडिशा में पुरी के प्रसिद्ध देवता यानी जगन्नाथ अपनी देह का त्याग करके चले गए थे और फिर उनका अपनी बहन सुभद्रा, ज्येष्ठ भाई बलभद्र तथा अपने सुदर्शन चक्र सहित पुनर्जन्म भी हुआ था? इस प्रक्रिया को ‘नव-कलेवर’ कहते हैं और यह तीन महीनों से अधिक समय लेती है। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार यह प्रक्रिया कम से कम 400 वर्षों से हर 14 से 19 वर्ष में एक बार होती आ रही है। यह तब होती है, जब पंचांग के अनुसार आषाढ़ महीने में अधिक मास होता है। इस प्रक्रिया की शुरुआत में नीम के पेड़ चुने जाते हैं। ओडिशा में इन पेड़ों को दारु-ब्रह्म कहते हैं। लेकिन केवल ऐसे पेड़ चुने जाते हैं, जिनके कुछ विशेष पहलू हैं: उन पर पक्षियों के घोंसले नहीं होते हैं, उन पर वल्मीक (चीटिंयों की बॉम्बी) होती हैं, उनमें सांप बसते हैं और उन पर विष्णु के चिह्न होते हैं। ऐसे पेड़ों को काटकर पुरी लाया जाता है। वहां कुछ निर्धारित अनुष्ठानों के पश्चात उन्हें एक गोपनीय स्थान पर ले जाकर उन पर नक्काशी की जाती है। कुछ सप्ताहों की नक्काशी के पश्चात मूर्तियां तैयार होती हैं। फिर तीव्र गरमी में इन नई मूर्तियों को पुरानी मूर्तियों के पास रखा जाता है। और फिर वह महत्वपूर्ण रात आती है, जब संपूर्ण पुरी शहर की बिजली बंद कर दी जाती है। शहर में अंधेरा हो जाता है। कुछ विशिष्ट पुजारी अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर मंदिर में प्रवेश करते हैं। कपड़े में लिपटे हुए हाथों से वे ‘ब्रह्म-पदार्थ’ को जगन्नाथ की पुरानी मूर्ति से नई मूर्ति तक पहुंचाते हैं। ब्रह्म-पदार्थ क्या है, यह आज तक कोई नहीं जान पाया है। स्वभावतः, सदियों से इसके बारे में कई अनुमान लगाए गए हैं। कुछ लोग लोग मानते हैं कि वह स्वयं कृष्ण के अवशेष हैं तो कुछ और लोग मानते हैं कि वह बुद्ध के अवशेष हैं। ब्रह्म-पदार्थ के पवित्र मणि, शालिग्राम और यहां तक कि तांत्रिक यंत्र होने के भी अनुमान लगाए गए हैं। इस हस्तांतरण में पुराने शरीर को फेंककर नए शरीर को अपनाया जाता है। पुरानी मूर्तियां मुख्य मंदिर से लगे कोइली-वैकुंठ नामक विशिष्ट पवित्र बाड़े में दफ़नाई जाती हैं। वर्षा-ऋतु के ठीक पहले होने वाली भव्य रथ यात्रा में लोगों को जगन्नाथ का नया शरीर पहली बार देखने को मिलता है। आश्चर्य की बात यह है कि इस मंदिर में अतीत में कई पंथों का समन्वय हुआ। पवित्र लकड़ी के कुंदे का उल्लेख संभवतः ऋग्वेद में है। सवर जनजाति के लोकसाहित्य में इस लकड़ी के सबसे पहले उल्लेख हैं। इस पर बौद्ध प्रभाव के भी कई संकेत पाए गए हैं। लेकिन वर्तमान काल में यह मुख्यतः वैष्णव मंदिर है। कृष्ण की बहन और उनका भाई हिंदू धर्म के क्रमशः शाक्त और शैव संप्रदायों के मूर्त रूप हैं। अनुष्ठान करने वाले पुजारी भी कई जातियों के हैं। उदाहरणार्थ, देवता की सेवा करने वाले दैत्य-पति ब्राह्मण नहीं हैं। और देवताओं की मूर्तियां और रथ बनाने वाले शिल्पकार महा-राना समाज के हैं। इस सबके बावजूद, मंदिर में केवल हिंदुओं को प्रवेश करने की अनुमति है। सालबेग जैसे कवि संत, जिनके पिता मुसलमान थे, को मंदिर के प्रवेशद्वार पर खड़े रहकर ही जगन्नाथ की स्तुति में गीत गाने पड़े थे। इस पर स्वयं जगन्नाथ सालबेग से प्रभावित होकर पतित पावन का रूप धारण कर उनसे मिलने बाहर आए। एक और उल्लेखनीय बात यह है कि सदियों से मंदिर पर अनेक हमले हुए। इसके बावजूद वह आज भी अस्तित्व में है। पांचवीं या दसवीं सदी में रक्तबाहु नामक यवन राजा ने मंदिर और मूर्तियों को दूषित किया था। सोलहवीं सदी में इस्लाम अपनाने के कुछ ही समय बाद काला-पहाड़ नामक सरदार ने भी यही किया था। लेकिन मंदिर और रथ यात्रा जैसे उससे जुड़े अनुष्ठान आज भी पनप रहे हैं। इतना ही नहीं, वे विश्व विख्यात भी बन गए हैं। और क्यों नहीं? मंदिर आते-जाते रहेंगे, शरीर नष्ट होते रहेंगे, जातिवाद चलता रहेगा, धर्म आते-जाते रहेंगे, राजा लड़ते रहेंगे, लेकिन देवत्व हमेशा जीवित रहेगा और रहस्यमय ब्रह्म-पदार्थ की तरह एक से दूसरे रूप में प्रवेश करता रहेगा।


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