Header Ads Widget

Responsive Advertisement

जब अपने काम में कमियां दिखने लगेंगी तो आपकी तरक्की भी शुरू हो जाएगी - गुलज़ार

  • अगले माह 90 के होने जा रहे गुलज़ार ने हाल ही में ‘फिल्म हैरिटेज फाउंडेशन’ पर डाक-टिकट जारी किया है। इतने लंबे सफर के दौरान लगातार सीखते रहने पर उनके विचार...

कई दशकों से अगर मैं लिख रहा हूं, फिल्मों में बना हुआ हूं, तो इसकी वजह मैं खुद हूं। मैं जिद्दी हूं और रुक नहीं रहा हूं। मैं अक्सर कहता हूं कि लेखक बनने के लिए आप जल्दी मत करो। सीखा यही है हमने कि यह करने की विद्या है... करने से ही आएगी। लिखने की विद्या है... लिखने से आएगी। नापतौल या बालिश्तों से लिखने की विद्या को हासिल नहीं किया जा सकता। आप लिखो... उसको छपवाओ। पत्रिकाओं में छपवाओ। लेखक बन जाओगे... अपने आप बन जाओगे। जिस दिन आपका लिखा छपेगा और आप उसे पढ़ेंगे... तो महसूस करेंगे कि इसे पढ़ने वाले अब आप अकेले नहीं हैं। वो कहीं ‘बैक ऑफ द माइंड’ है कि यह सब तक पहुंच गई है। जब आप अपना काम करते-करते रद्द करना सीख जाएंगे, अपना काम काटना शुरू करेंगे तो वहां से आपकी ग्रोथ शुरू होगी। कहने का मतलब यह है कि जब आपको अपनी कमियां दिखने लगेंगी तो आप बेहतर होंगे। ज्यादा कहने से उसका असर, उसका इम्पैक्ट कम होता है और कम कहने से ज्यादा होता है। यह बात तजुर्बे से आती है। यह तजुर्बा आपको हासिल करना पड़ता है। तो करते-करते ही सब हासिल होता है, तजुर्बा भी। इंसान जैसे अपने रिश्ते निभाता है, वैसे ही कई दफा अपने काम से भी रिश्ते निभाने लग जाता है। जैसे निर्देशक है तो वो लिख भी लेगा, एडिट भी कर लेगा, संगीत भी दे देगा। आदमी यदि सीख रहा है तो कर रहा है। कोई किसी पर हावी ना हो, यह भी सीखने की बात है। तो आप केवल निभाकर ही सीख सकते हैं।

टीम को ऐसे लीड करते हैं
फिल्म में हम अलग-अलग नहीं होते हैं, एक टीम होते हैं। कोई अपनी अलग फिल्म नहीं बनाता। यह बात टीम को लीडर समझाता है, जिसे निर्देशक कहते हैं। निर्देशक को यह तक समझाना होता है कि कैमरा यहां रखने से क्या होगा! निर्देशक उस सुझाव के लिए भी ओपन रहता है, जब कैमरामैन कहता है कि यहां से लाइट अच्छी आ रही है, कैमरा वहां रखते हैं। निर्देशक जानता है इस फिल्म रूपी जहाज को लैंड कहां कराना है। इसलिए उसे ‘कैप्टन ऑफ शिप’ कहते हैं। निर्देशक की जिम्मेदारी केवल क्रू को हैंडल करने की नहीं होती है। वह पूरे कॉन्सेप्ट को हैंडल करता है।

अपने दौर को स्वीकार करें
फाइन आर्ट्स जितने भी हैं, फिर चाहे म्यूज़िक हो, पेंटिंग हो या शायरी... सभी ज़िंदगी के साथ जुड़े हुए हैं। अगर दौर बदल रहा है तो दिक्कतें और उनके हल भी बदल रहे हैं। खान-पान भी बदल रहा है। ज़िंदगी की रफ़्तार भी बदल रही है और म्यूज़िक की रफ़्तार भी। ऐसे में अगर मैं आपको स्वीकार कर रहा हूं तो आपकी ज़ुबान भी साथ में स्वीकार रहा हूं। मैं अपने दौर को, अपने आस-पास के माहौल को भी स्वीकार रहा हूं तो बाक़ी की चीज़ें भी स्वीकार ही रहा हूं। यह तो हरगिज़ मुमकिन नहीं हो सकता न कि मैं आज के दौर में रह रहा हूं और बात कर रहा हूं ग़ालिब के दौर की...।
(तमाम इंटरव्यूज में फिल्मकार-लेखर-शायर गुलजार)

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ